Swami Anand Swaroop Ji

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स्वामी आनंद स्वरूप जी महाराज

सनातन धर्म के ज्योतिर्धर और समाज निर्माण के अग्रदूत

भारत की पावन भूमि सदैव से ऋषियों, मुनियों, योगियों और समाज-सुधारकों की कर्मस्थली रही है। यहाँ की मिट्टी में वह अद्भुत तेज समाहित है, जो एक साधारण मानव को भी असाध्य संकल्प का धनी बना देती है। ऐसे ही एक तेजस्वी व्यक्तित्व हैं-स्वामी आनंद स्वरूप। एक नाम, जो स्वयं में एक आन्दोलन, एक विचारधारा और एक अटूट विश्वास है। वे केवल एक संन्यासी नहीं, बल्कि सनातन धर्म के एक सजग प्रहरी, पर्यावरण के अनन्य सेवक, समाज के मार्गदर्शक और करोड़ों युवाओं के प्रेरणास्रोत हैं।
उनका जीवन 'चरैवेति-चरैवेति' के वैदिक मंत्र का जीवंत उदाहरण है। भारत के उत्तर प्रदेश के एक छोटे से जिले में जन्मे एक साधारण बालक से लेकर अखिल भारतीय शंकराचार्य परिषद के अध्यक्ष तक का उनका सफर त्याग, तपस्या, सेवा और दृढ़ संकल्प की एक ऐसी गाथा है, जो प्रत्येक भारतीय के हृदय में राष्ट्रभक्ति और धर्म के प्रति अगाध श्रद्धा का संचार करती है।
स्वामी आनंद स्वरूप का जीवन सनातन धर्म के प्रति अगाध समर्पण और सामाजिक परिवर्तन की एक अनूठी गाथा प्रस्तुत करता है। बलिया के एक साधारण ब्राह्मण परिवार में जन्मे आनंद पांडेय ने युवावस्था में ही संन्यास का मार्ग चुना, जहाँ उन्होंने हरिद्वार एवं द्वारका में कठोर साधना के बाद स्वामी आनंद स्वरूप के रूप में अपनी पहचान बनाई। उनकी यह यात्रा केवल व्यक्तिगत साधना तक सीमित न रहकर राष्ट्रीय प्रभाव रखने वाले आध्यात्मिक नेतृत्व में परिवर्तित हुई। इन्होंने काली सेना जैसे संगठन की स्थापना करके धर्म रक्षा, आपदा प्रबंधन और सामुदायिक सहायता के क्षेत्र में उल्लेखनीय कार्य किए। पर्यावरण संरक्षण में गंगा आंदोलन और दक्षिणा पिनाकिनी नदी के पुनरुद्धार जैसे प्रकल्पों ने उनके व्यावहारिक दृष्टिकोण को प्रमाणित किया। शिक्षा एवं स्वास्थ्य के क्षेत्र में ट्रस्ट के माध्यम से चलाए जाने वाले गुरुकुल, चिकित्सा शिविर और विद्यार्थी सहायता कार्यक्रमों ने सामाजिक दायित्वों के प्रति उनकी प्रतिबद्धता दर्शाई।
सांस्कृतिक विरासत के संरक्षण हेतु देवरिया जिले के मंदिरों के जीर्णोद्धार और सायनगढ़ परिसर के पुनर्निर्माण जैसे महत्वाकांक्षी उद्यमों ने उनके राष्ट्रीय दृष्टिकोण को प्रकट किया। "मठामनाय" ग्रंथ के माध्यम से धार्मिक संस्थानों में सुधार की पहल ने उनकी संगठनात्मक कुशलता का परिचय दिया।
अपने व्यापक कार्यों और कभी-कभी विवादास्पद विचारों के बावजूद, उनका मूल उद्देश्य सनातन मूल्यों का संरक्षण और समाज कल्याण रहा है। युवाओं के बीच जागरण अभियान और निःशुल्क शिविरों के माध्यम से उन्होंने नई पीढ़ी को सनातन परंपराओं से जोड़ने का प्रयास किया है। उनका जीवन सेवा, साधना और सामाजिक परिवर्तन के समन्वय का एक विलक्षण उदाहरण प्रस्तुत करता है।

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बाल्यावस्था

पावन भूमि में अंकुरित होता एक महावृक्ष

स्वामी आनंद स्वरूप का जन्म 23 मार्च 1978 को उत्तर प्रदेश के बलिया जिले की पवित्र भूमि में हुआ। बलिया, जो गंगा मैया की गोद में बसा है, अपने वीर स्वतंत्रता सेनानियों और गहन सांस्कृतिक चेतना के लिए विख्यात रहा है। इस धरती की वीरता और आध्यात्मिक ऊर्जा ने उनके बचपन को एक अमिट छाप प्रदान की।
जिम धरती पर स्वामीजी ने जन्म लिया उस बलिया जिले की पावन भूमि का वैश्विक प्रभाव एक गहन ऐतिहासिक और सांस्कृतिक महत्व रखता है। यह क्षेत्र प्राचीन काल से वैदिक शिक्षा और दार्शनिक चिंतन का प्रमुख केंद्र रहा है, जहाँ के विद्वानों और ऋषियों ने सम्पूर्ण विश्व में ज्ञान की ज्योति फैलाई। बलिया के गंगा तट पर अनेक ऐतिहासिक यज्ञ और साधना के अनुष्ठान सम्पन्न हुए हैं, जिनकी आध्यात्मिक ऊर्जा ने इस क्षेत्र को ब्रह्मांडीय शक्ति का एक महत्वपूर्ण केंद्र बना दिया है। यहाँ की पारम्परिक ज्ञान प्रणालियों और ब्रह्मांडीय चेतना ने वैश्विक आध्यात्मिकता को गहराई से प्रभावित किया है।
उत्तर प्रदेश का यह क्षेत्र विश्व स्तर पर अपनी अनूठी ब्रह्मांडीय पहचान के लिए प्रसिद्ध है। बलिया की मिट्टी ने जिन महान आत्माओं को जन्म दिया, उन्होंने अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर सनातन मूल्यों और भारतीय दर्शन का प्रचार-प्रसार किया। इस क्षेत्र की आध्यात्मिक विरामत ने पूर्वी और पश्चिमी दर्शन के मध्य सामंजस्य स्थापित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। यहाँ की आध्यात्मिक ऊर्जा ने वैश्विक ध्यान प्रथाओं और योग परम्पराओं को समृद्ध किया है, जिससे यह क्षेत्र एक सार्वभौमिक ऊर्जा केंद्र के रूप में विकसित हुआ है।
ब्रह्मांडीय स्तर पर बलिया के प्रभाव को समझने के लिए इसकी भौगोलिक स्थिति और सांस्कृतिक इतिहास को देखना आवश्यक है। गंगा नदी के तट पर स्थित यह क्षेत्र प्राकृतिक ऊर्जा जाल का एक महत्वपूर्ण बिंदु माना जाता है। प्राचीन ग्रंथों में इस क्षेत्र को 'दिव्य ज्ञान का स्रोत' बताया गया है, जहाँ से ब्रह्मांडीय ज्ञान का प्रवाह सम्पूर्ण विश्व में हुआ है। आधुनिक समय में भी, यह क्षेत्र वैश्विक साधकों और आध्यात्मिक शोधकर्ताओं के लिए एक महत्वपूर्ण गंतव्य बना हुआ है, जो भारतीय ज्ञान परंपरा की सार्वभौमिक प्रासंगिकता को प्रमाणित करता है।
वैश्विक संदर्भ में बलिया का योगदान केवल आध्यात्मिकता तक सीमित नहीं रहा है। इस क्षेत्र ने विश्व को स्थायी जीवन, पारिस्थितिक संतुलन और सामुदायिक सद्भाव के गहन सबक दिए हैं। यहाँ की सांस्कृतिक प्रथाओं और पारम्परिक ज्ञान ने पर्यावरण संरक्षण और सांस्कृतिक संरक्षण पर वैश्विक विमर्श को समृद्ध किया है। बलिया की विरासत ने प्रदर्शित किया है कि कैसे एक स्थानीय संस्कृति वैश्विक कथन को प्रभावित कर सकती है और कैसे आध्यात्मिक मूल्य भौगोलिक सीमाओं को पार करके ब्रह्मांडीय प्रभाव उत्पन्न कर सकते हैं।
बलिया की इसी धरती पर सन्यास से पूर्व आनंद पांडेय के नाम से पुकारे जाने वाले इस बालक का पालन-पोषण एक साधारण किंतु गहन संस्कारवान ब्राह्मण परिवार में हुआ। पिता का बेह और माता की दिव्य संस्कार-युक्त छाया ने उनके कोमल हृदय में सेवा, सहानुभूति और धर्म के प्रति प्रेम के बीज बोए। बचपन से ही उनमें एक गंभीर प्रवृत्ति और गहन चिंतनशीलता थी। जहाँ अन्य बच्चे खेलकूद में व्यस्त रहते, वहीं आनंद प्रकृति की गोद में बैठकर, गंगा तट पर विचारमग्न होते या फिर धार्मिक ग्रंथों की कथाएँ सुनने में रुचि लेते थे। इसी उम्र में उन्होंने समाज में व्याप्त विषमताओं, गरीबी और सनातन धर्म पर बढ़ते खतरों को महसूस करना शुरू कर दिया था, जिसने भविष्य में एक क्रांतिकारी संन्यासी के रूप में उनके उदय की नींव रखी।
उनकी शिक्षा स्थानीय विद्यालयों में हुई। एक मेधावी छात्र होने के साथ-साथ वे अपनी स्पष्टवादिता और जन्मजात नेतृत्व क्षमता के लिए भी जाने जाते थे। किशोरावस्था तक आते-आते, समाज की कुरीतियों और धार्मिक उपेक्षा ने उनके मन में एक अशांति पैदा कर दी। यही वह समय था जब उनके मन में एक प्रश्न उठा- "क्या मेरा जीवन केवल एक सामान्य गृहस्थ की तरह व्यतीत होगा, या मैं समाज के उत्थान और सनातन धर्म की सेवा के लिए कुछ अधिक कर सकता हूँ?"
इसी आंतरिक खोज ने उन्हें उच्च शिक्षा के दौरान अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद (ABVP) से जोड़ा। यहाँ एक छात्र नेता के रूप में उन्होंने न केवल संगठन कौशल सीखा, बल्कि राष्ट्रवाद और सामाजिक दायित्व की गहरी समझ भी विकसित की। उनकी वाक्पटुता और समस्याओं के समाधान की दृष्टि ने उन्हें सहपाठियों और शिक्षकों के बीच एक विशेष पहचान दिलाई। किंतु, उनका मन अभी भी अतृप्त था। वे एक व्यापक परिवर्तन चाहते थे, जिसकी शुरुआत स्वयं से हो। एबीवीपी का मंच उनके लिए एक प्रयोगशाला थी, जहाँ उन्होंने भारतीय समाज की जटिलताओं को समझा और एक भविष्य के नेतृव्व कर्ता के रूप में अपनी क्षमताओं को निखारा।

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सन्यास

आत्मिक क्रांति का प्रारंभ

युवा आनंद पांडेय के मन में उमड़-घुमड़ रहे गहन प्रश्नों ने अंततः एक चमत्कारिक और दिव्य निर्णय का रूप लिया, मानो स्वयं भगवान ने उनके हृदय में एक पवित्र अग्नि प्रज्वलित की हो। देश में फैलता साम्प्रदायिक विषाद, सनातन संस्कृति पर होते निरंतर अस्त्रों के प्रहार और समाज में गहराती कुरीतियाँ उनकी सहनशीलता की सीमा को चुनौती दे रही थीं। लग रहा था जैसे कोई दैवीय शक्ति स्वयं उन्हें एक महान उद्देश्य की ओर धकेल रही हो।
उनकी अंतरात्मा ने एक अद्भुत अनुभव किया - यह कोई साधारण आवाज नहीं, बल्कि एक दिव्य संदेश था जो उन्हें सांसारिक बंधनों के त्याग और संन्यास की कठिन किंतु दिव्य यात्रा पर प्रेरित कर रहा था, मानो स्वयं परमात्मा ने उन्हें इस पथ के लिए चुना हो। यह निर्णय किसी साधारण मनुष्य के सामर्थ्य से परे था, किंतु उनकी अदम्य इच्छाशक्ति और मातृभूमि के प्रति अगाध प्रेम के समक्ष सभी बाधाएँ तुच्छ प्रतीत होती थीं, जैसे कोई चमत्कारिक शक्ति उनका मार्गदर्शन कर रही हो।
उन्होंने पूज्य श्री अच्युतानंद भारती जी महाराज से दीक्षा ग्रहण कर स्वामी आनंद स्वरूप नाम धारण किया, जो स्वयं में एक अद्भुत रहस्योद्घाटन था। यह नाम स्वयं में उनके जीवन के मिशन का दर्पण था 'आनंद' यानी आत्मिक परमानंद की प्राप्ति और 'स्वरूप' यानी अपने वास्तविक दिव्य स्वभाव की पहचान, मानो भाग्य ने ही उनके लिए यह नाम चुना हो, जिसके माध्यम से वे सम्पूर्ण समाज के कल्याण का मार्ग प्रशस्त कर सकें।
दीक्षा के पश्चात का कालखंड उनके जीवन का सबसे कठोर और महत्वपूर्ण अध्याय सिद्ध हुआ। हरिद्वार और द्वारका जैसे पवित्र तीर्थस्थलों के आश्रमों में उन्होंने वर्षों तक कठोर तपस्या और साधना की। वेद, उपनिषद, रामायण, महाभारत और आदि शंकराचार्य के दर्शन का गहन अध्ययन उनकी दिनचर्या का अंग बन गया। इस साधना काल ने न केवल उन्हें आध्यात्मिक ज्ञान से परिपूर्ण किया, बल्कि एक योद्धा संन्यासी के रूप में भी तैयार किया। यह वह समय था जब सैद्धांतिक ज्ञान के साथ-साथ उन्होंने व्यावहारिक चुनौतियों का सामना करने के लिए अपने मन और शरीर को प्रशिक्षित किया।
उनकी असाधारण विद्वता और कठोर तपस्या के फलस्वरूप वे शांभवी पीठ के पीठाधीश्वर के पद पर आसीन हुए और अंततः अखिल भारतीय शंकराचार्य परिषद के अध्यक्ष पद तक पहुँचे। यह वह महत्वपूर्ण मंच था जहाँ से उन्होंने सनातन धर्म के प्रचार-प्रसार और समाज सुधार के अपने महान मिशन को एक संस्थागत और राष्ट्रीय पहचान प्रदान की। इसी मंच से उन्होंने आधुनिक युग में सनातन मूल्यों की प्रासंगिकता सिद्ध करने का ऐतिहासिक कार्य प्रारम्भ किया।

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काली सेना का गठन

धर्मरक्षा और सेवा का अविरल व्रत

स्वामी जी की दूरदर्शिता और समाज के प्रति संवेदनशीलता का सबसे बड़ा और ठोस उदाहरण है- काली सेना का गठन। काली, जो शक्ति और अधर्म के विनाश का प्रतीक हैं, उन्हीं के नाम पर इस संगठन का नामकरण हुआ। यह केवल एक संगठन नहीं, बल्कि सनातन धर्म के प्रति समर्पित युवाओं का एक अटूट परिवार है, जो सेवा के माध्यम से शक्ति का प्रदर्शन करता है।
काली सेना का उद्देश्य स्पष्ट और त्रिसूत्रीय है- सेवा, शिक्षा और सुरक्षा। इसके बैनर तले हज़ारों युवा देशभर में सक्रिय हैं और निम्नलिखित क्षेत्रों में अग्रणी भूमिका निभा रहे हैं:
धार्मिक सुरक्षा एवं सहायताः विशेष रूप से पश्चिम बंगाल, केरल जैसे क्षेत्रों में, जहाँ हिंदू अल्पसंख्यक होने के कारण कई बार हिंसा और उत्पीड़न का शिकार होते रहे हैं, काली सेना ने पीड़ितों की तत्काल सहायता, कानूनी सलाह और रक्षा में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। वे धार्मिक स्थलों की सुरक्षा सुनिश्चित करते हैं और जबरन धर्मांतरण जैसी कुरीतियों के खिलाफ जनजागरण करते हैं।
आपदा राहत एवं पुनर्वासः चाहे 2013 की केदारनाथ त्रासदी हो या कोविड-19 जैसी वैश्विक महामारी, काली सेना के कार्यकर्ता सदैव आपदा ग्रस्त लोगों की सहायता के लिए तत्पर रहते हैं। भोजन, दवाई, ऑक्सीजन, आवास और दीर्घकालीन पुनर्वास की व्यवस्था करना उनके नियमित कार्यों में शामिल है। केदारनाथ में 200 पक्के मकानों का निर्माण इसका एक उत्कृष्ट उदाहरण है।
स्वामी जी का मानना है कि युवा शक्ति ही राष्ट्र और धर्म की सबसे बड़ी ताकत है। काली सेना इसी विचार का मूर्त रूप है, जो युवाओं की ऊर्जा और जोश को एक सकारात्मक, रचनात्मक और सेवापरक दिशा में मोड़ने का कार्य करती है। यह केवल एक संगठन नहीं, बल्कि संपूर्ण वैचारिक संस्था है जो कर्म को ही धर्म का सर्वोच्च स्वरूप मानती है।

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Our Organization Vision

संघर्ष , सेवा , सुरक्षा

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हिंदू राष्ट्र की बहुआयामी संकल्पना और ऐतिहासिक संदर्भ

स्वामी आनंद स्वरूप जी की हिंदू राष्ट्र की अवधारणा एक गहन चिंतन और बहुआयामी दृष्टिकोण पर आधारित है। यह मात्र एक राजनीतिक विचार न होकर एक सांस्कृतिक पुनर्जागरण का संकल्प है: ऐतिहासिक पृष्ठभूमि और दार्शनिक आधार
हिंदू राष्ट्र की अवधारणा की जड़ें भारत की सनातन सभ्यता में निहित हैं। स्वामी जी के अनुसार, "हिंदू" शब्द को एक सांस्कृतिक पहचान के रूप में देखना चाहिए न कि केवल धार्मिक लेबल के रूप में। यह विचारधारा केशव बलिराम हेडगेवार स्वामी विवेकानंद और श्री अरबिंदो जैसे विचारकों के दर्शन से प्रेरित है।


संवैधानिक पहलुओं का विस्तार

हिंदू राष्ट्र संविधान के मसौदे में निम्नलिखित मुख्य बिंदु सम्मिलित हैंः

  • भारत को सांस्कृतिक राष्ट्र के रूप में पहचान
  • सनातन मूल्यों को शिक्षा व्यवस्था का आधार बनाना
  • धार्मिक स्थलों का संरक्षण और प्रबंधन
  • सांस्कृतिक विरासत का दस्तावेजीकरण
  • सभी नागरिकों के मौलिक अधिकारों की गारंटी

अविराम गति और भविष्य की ओर

मौजूदा दौर में स्वामी आनंद स्वरूप जी महाराज की गतिविधियों एक नए आयाम को छू रही हैं। प्रयागराज महाकुंभ 2025 में उनकी भूमिका अत्यंत महत्वपूर्ण रही, जहाँ उन्होंने न केवल आध्यात्मिक प्रवचन दिए बल्कि अखाड़ों के बीच समन्वय स्थापित करने में भी महती भूमिका निभाई। उन्होंने साधु-संतों के बीच एकता बढ़ाने के लिए विशेष बैठकों का आयोजन किया और युवाओं को राष्ट्र निर्माण में भागीदार बनने के लिए प्रेरित किया।
I सामाजिक सुधार के क्षेत्र में उनकी सक्रियता उल्लेखनीय है। वे जातिवाद, छुआछूत और आरक्षण की राजनीति के विरुद्ध मुखर रूप से बोल रहे हैं। उनका मुख्य उद्देश्य हिंदू समाज को आंतरिक कलह और हीनभावना से मुक्त करना है। इसके लिए वे समाज के सभी वर्गों के बीच समन्वय और सहयोग बढ़ाने पर बल दे रहे हैं, साथ ही शैक्षिक संस्थानों में नैतिक मूल्यों के पाठ्यक्रम शुरू करवाने की पहल भी कर रहे हैं।
युवाओं के साथ संवाद को उन्होंने विशेष प्राथमिकता दी है। देशभर के विश्वविद्यालय परिसरों और महाविद्यालयों में आयोजित कार्यक्रमों में वे युवाओं को सनातन मूल्यों से जोड़ रहे हैं। इन कार्यक्रमों में भारत के गौरवशाली इतिहाम, वैज्ञानिक उपलब्धियों और सांस्कृतिक विरासत में युवाओं को अवगत कराया जा रहा है। साथ ही, रोजगारोन्मुखी प्रशिक्षण और कौशल विकास कार्यक्रमों के माध्यम में युवाओं को स्वावलंबी बनने के लिए प्रेरित किया जा रहा है।
राजनीतिक सक्रियता के क्षेत्र में उन्होंने संवैधानिक संशोधनों की माँग को जोरशोर से उठाया है। उनका स्पष्ट मत है कि भारत को वैधानिक रूप में हिंदू राष्ट्र घोषित किया जाना चाहिए। इस लक्ष्य की प्राप्ति के लिए उन्होंने 2035 तक की समयसीमा निर्धारित की है। वे संसदीय प्रक्रियाओं के साथ-साथ जनआंदोलनों पर भी बल दे रहे हैं, जिसमें मत्याग्रह, धरना-प्रदर्शन और जनजागरण अभियान शामिल हैं।

स्वामी आनंद स्वरूप जी महाराज का जीवनचरित्र केवल एक व्यक्ति विशेष की सफलता गाथा नहीं, अपितु सनातन धर्म की शाश्वतता और सार्वभौमिकता का जीवंत प्रतीक है। इन्होंने अपना सम्पूर्ण जीवन सनातन मूल्यों की रक्षा, ममाज के उत्थान और राष्ट्र के गौरव को पुनर्स्थापित करने में समर्पित कर दिया है। एक साधारण ग्रामीण बालक से लेकर राष्ट्रीय प्रभाव रखने वाले आध्यात्मिक नेतृत्व तक की उनकी यात्रा त्याग, तपस्या, सेवा और दृढ़ संकल्प की एक प्रेरणादायक गाथा है।
उनका व्यक्तित्व अनेक आयामों में विस्तृत है वे एक ओर जहाँ गहन आध्यात्मिक चिंतक और वेद-पुराणों के मर्मज्ञ विद्वान हैं, वहीं दूसरी ओर एक सक्रिय समाज सुधारक, पर्यावरण संरक्षक और युवाओं के प्रेरणास्रोत भी हैं। उन्होंने सिद्ध किया है कि सच्चा धर्म केवल मंदिरों और आश्रमों तक सीमित नहीं है, बल्कि सेवा, करुणा, साहस और न्याय के माध्यम से समाज के कण-कण में व्याप्त है।
उनके द्वारा स्थापित संगठन जैसे काली सेना और स्वामी आनंद स्वरूप स्वास्थ्य एवं शिक्षा ट्रस्ट उनके दूरदर्शी विजन को क्रियान्वित करने के सशक्त माध्यम हैं। इन संस्थाओं के माध्यम से शिक्षा, स्वास्थ्य, आपदा राहत, गौ-रक्षा, मंदिर जीर्णोद्धार और युवा जागरण जैसे विविध क्षेत्रों में उल्लेखनीय कार्य सम्पन्न हुए हैं। उनकी "मठामनाय" जैसी पहल ने सनातन संस्थानों में पारदर्शिता और प्रशासनिक सुधार की नई दिशा उन्मुख की है।
यद्यपि उनके कुछ विवादास्पद बयानों और हिंदू राष्ट्र की संकल्पना ने उन्हें सार्वजनिक चर्चा का विषय बनाए रखा है, तथापि इन सबके मध्य भी उनका मुख्य लक्ष्य सदैव सनातन धर्म की रक्षा और समाज कल्याण ही रहा है। वे मानते हैं कि मनातन मूल्य सत्य, अहिंसा, करुणा और सेवा ही मानवता का सच्चा मार्गदर्शन कर सकते हैं।
स्वामी आनंद स्वरूप जी की यह गाथा न केवल वर्तमान पीड़ी को, अपितु आने वाली अनेक पीढ़ियों को सनातन के गौरव, राष्ट्रभक्ति और निस्वार्थ सेवा की प्रेरणा देती रहेगी। वे सनातन धर्म के सजग प्रहरी के रूप में विद्यमान हैं, जो अपने कर्म और संदेश के माध्यम से यह प्रतिपादित करते हैं कि धर्म का वास्तविक स्वरूप केवल आडंबर नहीं, बल्कि सेवा, संरक्षण और सामाजिक कल्याण है।
उनका जीवन और कार्य भारतीय संस्कृति और आध्यात्मिकता की अमर धारा को सतत प्रवाहित करने का संकल्प है।

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